ऎक गांव में राम सिंह नाम के एक जमींदार रहते थे, जिनके पांच बेटे और एक बेटी थी। इकलौती बेटी होने के कारण उसे सबसे ज़्यादा दुलार भी मिला। जमींदार की बेटी स्वाति, अपने पिता के इस दुलार की वज़ह से हठी और गुस्सैल स्वभाव की हो गई। इसके अलावा वो आलसी भी थी।

एक दिन जमींदार की पत्नी ने उससे कहा, ‘बेटी तो पराया धन होती है, तुम इसे इतना सिर न चढ़ाओ। विवाह के बाद कैसे निभाएगी?’‘मैं इसके ससुराल दास-दासियां भिजवा दूंगा।’ जमींदार ने कहा।गांव में एक गरीब किसान रहता था। उसके बेटे का नाम था वीर। वीर के जन्म के समय ही उसकी माता की मृत्यु हो गई थी। वीर को किसान ने ही पाल-पोस कर बड़ा किया था।महामारी में किसान का बैल मर गया। दूसरा बैल खरीदने के लिए उसे राम सिंह से पैसे उधार लेने पड़े। वर्षा न होने से फसल भी न हुई। लगातार ब्याज से किसान का ऋणभार बढ़ता रहा। पिता-पुत्र इसी चिन्ता में डूबे रहते। समय के साथ जमींदार की बेटी स्वाति भी बड़ी हो गई। जमींदार को उसके विवाह की चिन्ता हुई। स्वाति से विवाह करने के लिए कोई भी युवक तैयार नहीं हो रहा था।तभी जमींदार को वीर का ख्याल आया। वीर सुन्दर होने के साथ बुद्धिमान भी है। इसके अलावा किसान उनका कर्जदार भी है, सो इस रिश्ते के लिए वो मना भी नहीं करेगा। धन के प्रभाव से स्वाति को खुश भी रखेगा, यही सोच कर जमींदार ने किसान के यहां विवाह प्रस्ताव भेजा। न चाहते हुए भी वीर को यह शादी करनी पड़ी।ससुराल में भी स्वाति का व्यवहार नहीं बदला। पति के साथ ससुर को भी फटकार देती थी। किसान जमींदार के भय की वज़ह से कुछ न बोलता था। वीर गंभीर और स्वाभिमानी युवक था। कुछ दिन तक तो वो चुपचाप अपने पिता का ये अपमान देखता रहा, क्योंकि वो स्वाति की शिकायत करता भी तो किससे?एक दिन वीर ने अपने पिता के कान में कुछ कहा। पुत्र की बात सुन पिता ने भी स्वीकृति में गरदन हिला दी।अगले दिन वीर ने चुपके से सभी दास-दासियों को जमींदार के घर वापस भेज दिया। उसने कहा, ‘अपने घर की जिम्मेदारी स्वयं निभानी चाहिए।’स्वाति जब सोकर उठी तो उसे बहुत जोर से भूख लगी।वीर ने कहा, ‘खाना बना लो।’स्वाति रुआंसी होकर कहने लगी,‘इस कड़ाके की ठंड में मुझसे खाना नहीं बनेगा।’‘कोई बात नहीं, खाना मैं बना लूंगा। बस रसोई में तुम मेरी थोड़ी मदद कर देना।’ वीर बोला।अब वीर की बात मानने के अलावा स्वाति के पास कोई चारा नहीं था। दोनों ने मिलकर खाना बनाया। वीर खाने के बाद बोला, ‘मैं खेत पर जा रहा हूं काम करने, तुम घर में चौकस रहना।’‘चौकस क्यों?’ स्वाति ने पूछा।वीर ने बताया, ‘दिन मे प्रेत यहां से गुजरते हैं और जो भी उनकी तरफ देखता है, वो उसे नोंच डालते हैं।’स्वाति डर गई। ‘नहीं, नहीं! तब तो मैं यहां नहीं रहूंगी।’ एकाएक उसके मुंह से निकला। वीर ने पूछा, ‘तो तुम मेरे साथ खेत चलोगी?’स्वाति बोली,‘मैं इस ठंड में बाहर नहीं जा सकती। एक बात बताओ ये प्रेत तुम्हारे सामने क्यों नहीं आते?’वीर ने कहा,‘मेरे सामने भी आते हैं। पर जो उनकी तरफ देखता है, प्रेत उसी को चोट पहुंचाते हैं। यदि हम अपने काम में लगे रहें , तो प्रेत सामने से गुजर जाएंगे और हमें पता भी नहीं चलेगा। अच्छा, अब मैं जा रहा हूं।’ इतना कहकर वीर खेतों की ओर चल दिया।घर में खाली बैठी स्वाति को डर लगने लगा। उसने सोचा, ‘मुझे काम करते रहना चाहिए, इससे प्रेत की नजर मुझ पर नहीं जाएगी।’ इच्छा के विपरीत वो काम करती रही। वह डर से खाली भी नहीं बैठ सकती थी। उसने मन में सोचा,‘वीर के आने से पहले क्यों न खाना ही बना लिया जाए।’ उस रात का खाना स्वाति ने बना लिया। वीर जब घर आया तो देखा, पूरा घर साफ होने के साथ-साथ रात का खाना भी बन गया है। ये देखकर वो बहुत ही खुश हुआ।स्वाति ने बताया,‘आज प्रेत नहीं आए, मैं काम में जुटी रही।’‘शायद वो बगल से निकल गए होंगे।’ वीर ने उत्तर दिया।इसके बाद तो ये दिनचर्या बन गई। किसान और वीर खेत में काम करते और स्वाति प्रेत के डर से घर का सारा काम करती। उसका स्वभाव बदल गया।दो महीने गुजर गए। एक दिन जमींदार अपनी पत्नी के संग स्वाति से मिलने आए। स्वाति को देख वो दंग रह गए, वो भाग-भागकर घर का काम कर रही है। उसके शरीर में बिलकुल भी आलस नहीं था।माता-पिता को देखकर स्वाति उनके गले से लिपट गई। फिर बोली,‘पिता जी हमारे यहां कुछ काम करिए।’ उसने अपनी मां से भी यही कहा। उसे डर था कि प्रेत कहीं माता-पिता को नुकसान न पहुंचा दे।जमींदार को बेटी की बात माननी पड़ी, वो आंगन में रखे भूसे को घर में रखने लगे। शाम को जब वीर और उसके पिता खेत से लौटे, तो दोनों अचंभित खड़े देखते रह गए।।किसान ने जमींदार से क्षमा मांगी। जमींदार बोला, ‘मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। घर में घुसते ही स्वाति ने मुझे काम में लग जाने को कहा।’वीर कुछ बोलता इससे पहले ही स्वाति बोल पड़ी,‘यदि आप काम नहीं करते तो प्रेत आपको हानि पहुंचा सकते थे।’‘प्रेत?’ जमींदार की पत्नी ने पूछा।‘हां-हां, यहां से प्रेत गुजरते हैं!’स्वाति बोली।जमींदार ने वीर से कहा,‘मुझे अच्छा नहीं लगता, मेरी बेटी इतना काम करे, तुमने नौकरों को क्यों लौटाया?’वीर ने उत्तर दिया,‘विवाह के बाद लड़की पर उसके पति का अधिकार होता है, पिता का नहीं। जब हम स्वयं इतनी मेहनत करते हैं, तो इसका भी कर्तव्य बनता है, कि ये भी हमारा साथ दे, और ऋण चुकाने में हमारी मदद करे।’जमींदार बोला ‘पर वो ऋण तो मैंने स्वाति के विवाह के समय ही माफ कर दिया था।’वीर ने कहा,‘मैं आपके पैसे अवश्य ही लौटाऊंगा। हमें दूसरों पर आश्रित नहीं रहना चाहिए।’जमींदार की पत्नी ने पूछा,‘बेटा वे प्रेत कौन-से हैं, जिनकी बात स्वाति कर रही है?’वीर बोला,‘माताजी, पहला प्रेत है आलस्य! यदि स्वाति आलस कर बैठी रहती, तो इसे आलस्य का प्रेत नोंच डालता। दूसरा प्रेत है आपका ये ऋण! जब तक मनुष्य अपना ऋण न चुका दे उसे चैन नहीं आता।’वीर की बातें सुनकर जमींदार प्रसन्न हुए। उसकी पत्नी बोली,‘बेटा, तुमने मेरी बेटी का उद्धार कर दिया। अब मुझे इसकी कोई चिन्ता नहीं।’अब स्वाति को भी असली प्रेतों की पहचान हो गई थी। उसने वीर से कहा,‘अब हम दूसरों पर कभी आश्रित नहीं रहेंगे।’इसके बाद तीनों ने मेहनत करके जमींदार का ऋण भी चुका दिया।
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